Wednesday, December 23, 2015

पप्पु का खेत

पप्पु को खेत में टयूबवेल लगवाना था !
सोचा कि बाबा जी से पूछ लू कि पानी कहां होगा ?
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बाबा जी ने सारे खेत में घूम कर एक कोने में हाथ रख दिया और बोला कि यहां टयूबवेल लगा ले और 1100 रु. ले लिये !
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पप्पु बेचारा भुरभुरे स्वभाव का था !
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बाबा जी से बोला:
मैं बहुत खुश हूं...आप मेरे घर खाना खाने आओ !
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बाबा ने सोचा कि फंस गई सामी आज तो...
और हां कर दी !
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पप्पु घर जा कर अपनी पत्नि से बोला," बाबा
जी जिम्मण आवेंगे, पकवान बना ले और एक कटोरी में नीचे देसी घी और उपर चावल डाल दिये !
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पत्नि बोली कि घी तो ऊपर होता है !
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पप्पु बोला कि आज तू घी नीचे रखिये !
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बाबा जी आ गये और चावल वाली कटोरी देख कर बोले, पप्पु बेटा इसमें घी तो है ही नहीं !
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पप्पु ने चप्पल निकाल के एक धरी बाबा के कान के नीचे और बोला,
"तन्नै खेत में 250 फुट नीचे का पानी देख लिया...कटोरी में 2 इंच नीचे घी नी दिक्खया ?"

Tuesday, December 22, 2015

ज़िन्दगी और कस्ती

ज़िन्दगी का सफर है एक कस्ती का गोता लगाना
हर राह मिलेगी एक किनारा
लगेगा बस यहीं थम जाना
पर जैसे ही मंजिल पास आएगी
एक तूफान भी अपने  साथ लाएगी
लेजाएगी हमे कहीं और
ढूंढने अपना दूसरा किनारा
बस युहीं चलते जाना 

Monday, October 19, 2015

काबुलीवाला | रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी (कथा-कहानी)

मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, "बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह 'काक' को 'कौआ' कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। "देखो, बाबूजी, भोला कहता है - आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?" और फिर वह खेल में लग गई।
मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!"
कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।
काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, "बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?"
मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी ज़रुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम-किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, "इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।" फिर मैं बाहर चला गया।
कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।
काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?"
रहमत हँसता हुआ कहता, "हाथी।" फिर वह मिनी से कहता, "तुम ससुराल कब जाओगी?"
इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, "तुम ससुराल कब जाओगे?"
रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।" इस पर मिनी खूब हँसती।
हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।
एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।
कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।
इतने में "काबुलीवाले, काबुलीवाले", कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ''तुम ससुराल जाओगे?" रहमत ने हँसकर कहा, "हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।"
रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।"
छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।
काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।
कई साल बीत गए।
आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।
पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।
मैंने पूछा, "क्यों रहमत कब आए?"
"कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ," उसने बताया।
मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।"
वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, "ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?"
शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले" चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, "आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।"
वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।
मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, "'यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।"
मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, 'आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।' फिर ज़रा ठहरकर बोला, "आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।"
उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।
देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, "लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?"
मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।
मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? वह उसकी याद में खो गया।
मैने कुछ रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिए और कहा, "रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ।"
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साभार- रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियाँ

रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore

रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जीवन परिचय | Biography of Rabindranath Tagore |

रबीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता के प्रसिद्ध जोर सांको भवन में हुआ था। आपके पिता देबेन्‍द्रनाथ टैगोर (देवेन्द्रनाथ ठाकुर) ब्रह्म समाज के नेता थे।  आप उनके सबसे छोटे पुत्र थे। आपका परिवार कोलकत्ता के प्रसिद्ध व समृद्ध परिवारों में से एक था। 
भारत का राष्ट्र-गान आप ही की देन है।  रवीन्द्रनाथ टैगोर की बाल्यकाल से कविताएं और कहानियाँ लिखने में रुचि थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर को प्रकृति से अगाध प्रेम था।
एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा
रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्राथमिक शिक्षा सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर एक जाने-माने समाज सुधारक थे। वे चाहते थे कि रवीन्द्रनाथ बडे होकर बैरिस्टर बनें। इसलिए उन्होंने रवीन्द्रनाथ को क़ानून की पढ़ाई के लिए 1878 में लंदन भेजा लेकिन रवीन्द्रनाथ का मन तो साहित्य में था फिर मन वहाँ कैसे लगता! आपने कुछ समय तक लंदन के कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री लिए वापस आ गए।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य सृजन
साहित्य के विभिन्न विधाओं में सृजन किया।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की सबसे लोकप्रिय रचना 'गीतांजलि' रही जिसके लिए 1913 में उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
आप विश्व के एकमात्र ऐसे साहित्यकार हैं जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं।  भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बांग्ला' गुरुदेव की ही रचनाएं हैं।
गीतांजलि लोगों को इतनी पसंद आई कि अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया।  टैगोर का नाम दुनिया के कोने-कोने में फैल गया और वे विश्व-मंच पर स्थापित हो गए।
रवीन्द्रनाथ की कहानियों में क़ाबुलीवाला, मास्टर साहब और पोस्टमास्टर आज भी लोकप्रिय कहानियां हैं। 
रवीन्द्रनाथ की रचनाओं में स्वतंत्रता आंदोलन और उस समय के समाज की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

सामाजिक जीवन
16 अक्तूबर 1905 को रवीन्द्रनाथ के नेतृत्व में कोलकाता में मनाया गया रक्षाबंधन उत्सव से 'बंग-भंग आंदोलन' का आरम्भ हुआ। इसी आंदोलन ने भारत में स्वदेशी आंदोलन का सूत्रपात किया।
टैगोर ने विश्व के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक जलियांवाला कांड (1919) की घोर निंदा की और इसके विरोध में उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन द्वारा प्रदान की गई, 'नाइट हुड' की उपाधि लौटा दी। 'नाइट हुड' मिलने पर नाम के साथ  'सर' लगाया जाता है। 

निधन
7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में इस बहुमुखी साहित्यकार का निधन हो गया।
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Friday, July 31, 2015

vardan by premchand

विन्घ्याचल पर्वत मध्यरात्रि के निविड़ अन्धकार में काल देव की भांति खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दष्टिगोचर होते थे, मानो ये उसकी जटाएं है और अष्टभुजा देवी का मन्दिर जिसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों में लहरा रही थीं, उस देव का मस्तक है मंदिर में एक झिलमिलाता हुआ दीपक था, जिसे देखकर किसी धुंधले तारे का मान हो जाता था।
अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी। चारों और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगें पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से बह रही थीं। उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनि निकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिखायी देती थी। ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट होती थी। उसने देर तक सिर झुकाये रहने के पश्चात कहा।
‘माता! आज बीस वर्ष से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणो पर सिर न झुकाया हो। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो। तुम जगतारिणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अभिलाषा पूरी न हुई। मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊ?’
‘माता! मैंने सैकड़ों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं की’, तीर्थयाञाएं की, परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुम्हारी शरण आयी। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं? तुमने सदा अपने भक्तो की इच्छाएं पूरी की है। क्या मैं तुम्हारे दरबार से निराश हो जाऊं?’
सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही। अकस्मात उसके चित्त पर अचेत करने वाले अनुराग का आक्रमण हुआ। उसकी आंखें बन्द हो गयीं और कान में ध्वनि आयी।
‘सुवामा! मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूं। मांग, क्या मांगती है?
सुवामा रोमांचित हो गयी। उसका हृदय धड़कने लगा। आज बीस वर्ष के पश्चात महारानी ने उसे दर्शन दिये। वह कांपती हुई बोली ‘जो कुछ मांगूंगी, वह महारानी देंगी’ ?
‘हां, मिलेगा।’
‘मैंने बड़ी तपस्या की है अतएव बड़ा भारी वरदान मांगूगी।’
‘क्या लेगी कुबेर का धन’?
‘नहीं।’
‘इन्द का बल।’
‘नहीं।’
‘सरस्वती की विद्या?’
‘नहीं।’
‘फिर क्या लेगी?’
‘संसार का सबसे उत्तम पदार्थ।’
‘वह क्या है?’
‘सपूत बेटा।’
‘जो कुल का नाम रोशन करे?’
‘नहीं।’
‘जो माता-पिता की सेवा करे?’
‘नहीं।’
‘जो विद्वान और बलवान हो?’
‘नहीं।’
‘फिर सपूत बेटा किसे कहते हैं?’
‘जो अपने देश का उपकार करे।’
‘तेरी बुद्वि को धन्य है। जा, तेरी इच्छा पूरी होगी।

HINDI MORAL STORY

अत्यंत गरीब परिवार का एक  बेरोजगार युवक  नौकरी की तलाश में  किसी दूसरे शहर जाने के लिए  रेलगाड़ी से  सफ़र कर रहा था | घर में कभी-कभार ही सब्जी बनती थी, इसलिए उसने रास्ते में खाने के लिए सिर्फ रोटीयां ही रखी थी |
आधा रास्ता गुजर जाने के बाद उसे भूख लगने लगी, और वह टिफिन में से रोटीयां निकाल कर खाने लगा | उसके खाने का तरीका कुछ अजीब था , वह रोटी का  एक टुकड़ा लेता और उसे टिफिन के अन्दर कुछ ऐसे डालता मानो रोटी के साथ कुछ और भी खा रहा हो, जबकि उसके पास तो सिर्फ रोटीयां थीं!! उसकी इस हरकत को आस पास के और दूसरे यात्री देख कर हैरान हो रहे थे | वह युवक हर बार रोटी का एक टुकड़ा लेता और झूठमूठ का टिफिन में डालता और खाता | सभी सोच रहे थे कि आखिर वह युवक ऐसा क्यों कर रहा था | आखिरकार  एक व्यक्ति से रहा नहीं गया और उसने उससे पूछ ही लिया की भैया तुम ऐसा क्यों कर रहे हो, तुम्हारे पास सब्जी तो है ही नहीं फिर रोटी के टुकड़े को हर बार खाली टिफिन में डालकर ऐसे खा रहे हो मानो उसमे सब्जी हो |
तब उस युवक  ने जवाब दिया, “भैया , इस खाली ढक्कन में सब्जी नहीं है लेकिन मै अपने मन में यह सोच कर खा रहा हू की इसमें बहुत सारा आचार है,  मै आचार के साथ रोटी खा रहा हू  |”
 फिर व्यक्ति ने पूछा , “खाली ढक्कन में आचार सोच कर सूखी रोटी को खा रहे हो तो क्या तुम्हे आचार का स्वाद आ रहा है ?”
“हाँ, बिलकुल आ रहा है , मै रोटी  के साथ अचार सोचकर खा रहा हूँ और मुझे बहुत अच्छा भी लग रहा है |”, युवक ने जवाब दिया|
 उसके इस बात को आसपास के यात्रियों ने भी सुना, और उन्ही में से एक व्यक्ति बोला , “जब सोचना ही था तो तुम आचार की जगह पर मटर-पनीर सोचते, शाही गोभी सोचते….तुम्हे इनका स्वाद मिल जाता | तुम्हारे कहने के मुताबिक तुमने आचार सोचा तो आचार का स्वाद आया तो और स्वादिष्ट चीजों के बारे में सोचते तो उनका स्वाद आता | सोचना ही था तो भला  छोटा क्यों सोचे तुम्हे तो बड़ा सोचना चाहिए था |”
मित्रो इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है की जैसा सोचोगे वैसा पाओगे | छोटी सोच होगी तो छोटा मिलेगा, बड़ी सोच होगी तो बड़ा मिलेगा | इसलिए जीवन में हमेशा बड़ा सोचो | बड़े सपने देखो , तो हमेश बड़ा ही पाओगे | छोटी सोच में भी उतनी ही उर्जा और समय खपत होगी जितनी बड़ी सोच में, इसलिए जब सोचना ही है तो हमेशा बड़ा ही सोचो|

diwana maan

aaj cha hai gungunae ko,
koi apni dhun banane ko,
rehta hu sambhal ke duniya se
koi rok na agey ane ko|
aaj kuch hua aisa 
maan itra utha mera
jane wo kya baat thi 
jane wo kya baat hai
jo bolti hai mujhe
tu hai aur tu rahega
pareshan hu jitna bhi
par ji chata hai muskurane ko
shayad ye meri guptgu koi na padhe
par kya harz hai dikhane me|
Ab likhte hue ye khyal aya
kitne armano se bhari thi meri jholiya 
koi halat ke karan chut gayi
aur kuch hume manjur nhi tha
par ab toh lagta hai 
armano ki potli bande koi aya chupke se
aur lauta gaya mujhe khoya hua mera maksad
aj cha hai fir gungunae ko ||

Laghu-Katha

लघु कथा  

                                   माध्यम  
                                                     
                                                        पवित्रा अग्रवाल

 प्रशासनिक अधिकारी सुभाष ने खिड़की के बाहर देखते हुए अपनी पत्नी से कहा--
 "स्मृति सुनो कुछ लोग गेट से अंदर आ रहे हैं,मुझे पूछें तो कह देना घर पर नहीं हैं।'
 "ठीक है '
 "हाँ कहिये...किस से मिलना है ?'
 "मैडम हम सुजाता स्कूल से आए हैं ।पुरस्कार वितरण सामारोह में मुख्य अतिथि बनाना चाहते हैं।'
 "लेकिन मेरे पति तो अभी घर पर नहीं हैं।'
 "हम आपको अतिथि बनाना चाहते हैं।'
 "अरे नहीं मुझे ऐसे प्रोग्रामों से क्या लेना देना।मैं तो एक घरेलू महिला हूँ।मेरे पति एक अधिकारी हैं  ,बनाना है तो उन्हें बनाऐ।'
 "हर कामयाब पति की सफलता के पीछे उसकी पत्नी का हाथ होता है।...आप अपने को कम मत   आँकिए ।हम सब आपको ही मुख्य अतिथि बनाने की इच्छा ले कर आये हैं।'
 "ठीक है मुझे तारीख  और समय बता दीजिये .  एक-दो दिन का  समय  भी  दें   यदि उस दिन मैं फ्री हुई तो आपको फोन पर स्वीकृति   दे दूँगी ।'
 "थैक्यू मैडम हम परसों इसी टाइम आपको फोन कर लेंगे।'- कह कर वह लोग चले गए ।
 पति ने राहत की साँस लेते हुए कहा--"स्मृति अच्छा किया तुम ने टाल दिया ,ये लोग मुझ से कुछ  कराना चाहते हैं...सही होता तो मैं वैसे  ही कर देता ....कई सिफारिशें आ चुकी हैं... .अब शायद  तुम्हें माध्यम बनाना चाहते हैं।'


 
अच्छा किया
   
लघु कथा

                  अच्छा किया
                                                   
                                                                पवित्रा अग्रवाल
     
       बहुत दिनों  बाद एक अच्छी काम वाली पा कर तनाव मुक्त हो गई  थी।पर रोज सुबह आठ बजे तक आ जाने वाली लक्ष्मी दस बजे तक नहीं  आइ थी...मैने बर्तन मॉजना शुरू ही किया था कि सिर पर पट्टी बाँधे वह सामने खड़ी थी --
    -"हटो अम्मा हम साफ करते '
 "अरे ये क्या हुआ... कहीं गिर गई क्या ?'
   "नही अम्मा ..... रात में वो बच्चियों  का नान्ना ( पिता ) गाँव से आया,वोइच झगड़ा किया।'  
 "उसी ने मारा ?'
 "हौ अम्मा'
 "क्यों मारा ?'
   "अब क्या बोलूं अम्मा। एक छोटी सी कोठरी मे हम लोगाँ रहते,बाजू मे दो जवान बेटियाँ सोतीं। उसको नजदीक नही आने दी ... तो बोत गुस्से मे आ गिया...बच्चियों की भी शरम नही किया, बोला- "बहनो के मरद से काम चल जाता हुँगा, अब अपने मरद की क्या जरूरत'...दिल तो किया अम्मा कि उसका मुँह नोच लूँ पर बच्चियो के कारण मुँह सिल ली। मेरे कु उसका आना जरा भी पसंद  नहीं ।'
    "लक्ष्मी तेरा मरद है, तुझ से शादी की है उसने.. तेरे पास नही आयेगा तो किस के पास जायेगा ?'
    "अरे अम्मा उसका चरित्तर आप को नहीं मालुम ,सारे ऐब हैं उसमें फिर  शादी का मतलब बस यहीच होता अम्मा...जोरू और बच्चो के लिये उसका कोई  फरज नही ? उसके लक्षन अच्छे होते तो हम गॉव से इस सहर मे काहे को आते। ...दो कोठरी का घर था, उसे भी बेच के खा गया। अम्मा दो औरत बच्ची हैं। इनका भी तो घर बसाना न।'
   "हाँ सो तो है...फिर क्या हुआ ?'
 सुबह होतेइच मेरे कू खीच के हमारी अक्का ( बहन ) के घर को लेके गया ...अक्का और उसके मरद को गलीच-गलीच बाताँ बोला और मेरे कू वहींच मारना चालू किया फिर हम और अक्का मिल के उसको चप्पल से मारे।....अम्मा पहली बार हम उस पर हाथ उठाये....पर क्या करते....?"
        तभी उसकी बेटी आगयी-"अम्मा यह काम तो तुझ को  बोत पहले करना था....आज तक वह हमारे या तेरे वास्ते क्या किया ? हम लोगाँ मेहनत से कमाते और वो जब भी आता मार पीट के पैसे छीन के ले जाता... ..तूने कुछ भी गलत नही किया..जो किया अच्छा किया।'  




लघु कथा

                                  डुकरिया
                                     
                                                                             पवित्रा अग्रवाल

       ससुराल से पीहर आई बेटी से वहाँ के हाल चाल पूछते हुए माँ ने पूछा -- "तेरी डुकरिया के क्या   हाल हैं ?'
     "कौन डुकरिया माँ ?'
       "अरे वही तेरी सास ।'
 "प्लीज माँ उन्हें डुकरिया मत कहो ...अच्छा नहीं लगता ।'
 "मैं तो हमेशा ही ऐसे कहती हूँ, इस से पहले तो तुझे कभी बुरा नहीं लगा...अब क्या हो गया ?'
 "इस डुकरिया शब्द की चुभन  का अहसास मुझे तब हुआ जब एक बार अपनी सास को भी आपके   लिए इसी शब्द का स्तमाल करते सुना था...यद्यपि उन्हों ने मेरे सामने नहीं कहा था।'            

जो राम रचि राखा
लघु कथा
                     जो राम रचि राखा
                                                   
                                                                            पवित्रा अग्रवाल

 "बेटा यह शादी नहीं हो सकती ।'
 "क्यों पापा ? वह हमारी जाति की नहीं है,इस लिए ?'
 "एक कारण यह भी हो सकता था पर तुम्हारी खुशी के लिए हम इस शादी के लिए तैयार हो गए थे। पर तुम दोनो की जन्म पत्री नहीं मिल रही है।पंडित जी ने कहा है कि लड़की के भाग्य में वैधव्य का योग है... इसलिए उन्होंने इस विवाह से इंकार कर दिया है और यह बात सुन कर  हम भी हाँ कैसे  कर सकते ?'
 "पापा हमारा पढ़ा लिखा परिवार है... इन दकियानूसी बातों पर आप विश्वास  करते हैं ?
 "हाँ बेटा इस में तो हम विश्वास  करते हैं।'
 पापा यदि ये पंडित ऐसे किस्मत पढ़ सकते तो इनके परिवार में   कोई बेटी या बहू विधवा नहीं होती। ...  आपको तो पता है न कि पिछले वर्ष ही इन पंडित जी की बेटी शादी के एक साल बाद ही विधवा हो गई थी।क्या इन्होंने कुंडली नहीं मिलाई होगी ?'
 "बेटा तू बहस बहुत करता है।'
 "पापा मैं बहस नहीं कर रहा, सच्चाई के उदाहरण दे कर आप को ऐसे बेतुके अंधविश्वासों  से बचाने की   कोशिश कर रहा हूँ। ...प्लीज पापा ।'
 "ठीक है बेटा दिल पर पत्थर रख कर स्वंय को यह कह कर समझा लेंगे कि होवत वही जो राम रचि राखा ।'
 " थैंक यू,यह हुई न मेरे पापा वाली बात '


वाह देवी माँ
लघु कथा  
                          वाह देवी माँ
                                                                पवित्रा अग्रवाल
   
         "मिसेज गुप्ता कुछ सुना आपने...मिसेज नन्दा बुरी तरह जल गई हैं, अस्पताल में हैं।'
      "ये क्या कह रही हैं आप ...अभी दो तीन घन्टे पहले ही तो मुझे मिली थीं ।उन्हें सुबह सुबह इतनी  जल्दी तैयार देख कर मैं ने पूछा था --"मिसेज नन्दा आज इतनी जल्दी तैयार हो गई हैं ,कहीं  जाना है क्या ?'
      कहने लगीं--"हाँ देवी माँ  के मंदिर में दीया जलाने जाना हैं।.. ड्राइवर का इंतजार कर रही हूँ ,उसे  जल्दी आने को कहा था पर वह अभी आया नहीं है।'
     "मैं ने पूछा भी था कि क्या कोई खास बात हैं ?'
       कहने लगी " मिसेज गुप्ता आपको  तो मालुम है संजू, रवीना को कितना चाहता था किन्तु रवीना के  पिता गैर बिरादरी में शादी करने को तैयार नहीं थे ।तभी मैंने अपने इकलौते बेटे की खुशी के लिये  मन्नत माँगी थी।अब मेरी मनोकामना पूरी हो चुकी है और दोनो हनीमून पर गए हुए हैं तो सोचा मैं  यह काम भी कर आऊँ ।'... तभी उनका ड्राइवर आ गया था और वह चली गई थीं ....'
       "वाह देवी माँ,मनौती पूरी करने के लिए आए अपने भक्त की यह दशा .... बहुत बुरा हुआ।कैसे हो  गया यह सब, ..बच तो  जायेंगी ?'
      " सुना है कि मंदिर में दिया जलाते समय उनके कपडों में आग लग गई थी।..उनके ड्राइवर ने उन्हें अस्पताल पहुँचाया है, हालत नाजुक है।'
 
                                                   
                       मौहब्बत

                                                        पवित्रा अग्रवाल  
   
      सुनो शादी के सात सालों मे तुम पाँच बच्चो के अब्बा बन गये और छठे के बनने वाले हो। कुछ नही किया तो दस बारह बच्चो के अब्बा हो जाओगे।हाथ भी कितना तंग रहता है...तुम बोलो तो मै इस बार आप्रेशन करा लूँ ?'
   "नक्को कोइ जरूरत नही।अब्बा-अम्मी को मालुम हुआ तो फजीता करते।'
   "अपने अब्बा-अम्मी की फिकर है ,बच्चों की और मेरी नही....लगता तुम मुझ से अब पहले सी मौहब्बत नही करते।'
   "आप्रेशन का मौहब्बत से क्या रिश्ता है?
 "रिश्ता है, बहुत बड़ा रिश्ता है...तुमको मालुम न मेरी अम्मी की मौत कैसे हुइ थी?'
   " हौ,मालुम...जच्चगी के वखत हुइ थी।'
       "ये भूल गये कि पन्द्रहवी जच्चगी के वखत हुइ थी।...उनको भी अब्बा आप्रेशन नही कराने दिये थे।अम्मी तो अल्ला को प्यारी हो गयी।अब्बा दूसरी को घर ला लिये,वो तो अच्छा है उसको बच्चे नही हुये।अब्बा की सारी कमाइ इतने बड़े खानदान का पेट भरने मे ही चली जाती है ।अब तक बस मेरा निकाह कर पाये हैं दूसरी बहने निकाह के इंतजार मे घर बैठ कर बुड्ढ़ी हो रही हैं।भायाँ भी इघर उधर छोटे-छाटे कामा कर रऐ,एक पैट्रोल पम्प पे, एक पान के डब्बे पे,एक चाय की दुकान पे । बिना तालीम के ऐसे ही कामा करने पड़ते।सोहबत भी अच्छी नही है, परसो अजहर स्कूटर चोरी के इल्जाम मे पकड़ा गया।तुम चाहते कि हमारे बच्चों के साथ भी ऐसा ही हो ? तुम काम पे चले जाते मै एसी हालत मे भी सिलाइ का काम करती तब भी हाथ तंग रहता।.... पता नही क्यो इस मरतबा मेरे को बहुत डर लगरा है...बुरे-बुरे ख्वावाँ आ रहे है....ऐसे वखत में  अम्मी की तरह मै भी अल्ला को प्यारी हो गइ तो ?'......बात करते हुये नजमा की आँखें भर आयी और वो खामोश हो गइ।
       " बस अब चुप कर...तू ठीक बोल रही है।इस जचगी के बखत डाक्टर को बोल के तेरा आप्रेशन करा देता।'
   "तुम सच बोल रए...फिर तुम्हारे अब्बा- अम्मी....?'
  "उनकी फिकर तू नक्को कर।'
       फिर वह शरारत से बोला - "जो बीबी को करते प्यार वह आप्रेशन से कैसे करे इनकार।'      
दखल1

लघुकथा

                           दखल    
                                                  पवित्रा अग्रवाल

 माँ ने बहू बेटे को तैयार हो कर बाहर जाते देख कर पूछा --"सुबह सुबह तुम दोनो कहाँ जा रहे हो ?'
 "माँ अस्पताल जा रहे हैं।'
 "क्यों,किस की तबियत खराब है ?'
 बेटे ने सकपकाते हुए कहा --"माँ आपकी बहू फिर माँ बनने वाली है।हम टैस्ट करा कर देखना चाहते हैं  कि गर्भ में लड़का है या लड़की ।'
 "क्या करोगे पता कर के ?'
 "करना क्या है माँ लड़की हुई तो सफाई करा देंगे।'
 "तू ये क्या कह रहा है ?...आज कल लड़कियां भी किसी से कम नहीं हैं ।'
 "हाँ माँ यह मैं जानता हूँ पर हमारे दो बेटियाँ तो हैं न।क्या आप नहीं चाहतीं कि हमारे एक बेटा भी हो ?  ....अब मैं इतना धन्ना सेठ तो हूँ नहीं कि तीन तीन बेटियों की अच्छी परवरिश कर सकूँ।...अपने यहाँ  लड़कियों की शादी में कितना दहेज चलता है क्या आप नहीं जानतीं ?...वैसे भी बाप दादों का दिया तो   मेरे पास कुछ है नहीं ?'
 मां ने दुखी स्वर में कहा --"तुम्हारी यह बात तो सही है बेटा कि हम जिन्दगी भर बस गुजारा ही कर  पाए, ...दो कमरे का एक मकान भी नहीं बना सके ,पर ...
 "पर वर कुछ नहीं माँ,मैं आपका बहुत सम्मान करता हूँ लेकिन जिन्दगी के कुछ फैसले हम खुद लेना   चाहते हैं...प्लीज इसमें दखल मत दीजिए ।'
  कहते हुए दोनो घर से बाहर चले गए।